गुप्त नवरात्रि की कथा | Navratri Katha in Hindi
गुप्त नवरात्रि का क्या महत्व है?
गुप्त नवरात्रि में दस महा विधाओं की पूजा आराधना की जाती है, जबकि शारदीय नवरात्रों में नौ देवियों की पूजा होती हैं। गुप्त नवरात्रि तंत्र साधना, जादू-टोना, वशीकरण आदि चीजों के लिए विशेष महत्व रखता है। इन 9 दिनों तक मां दुर्गा की कठिन भक्ति और तपस्या की जाती है, खासकर निशा पूजा की रात्रि में तंत्र सिद्धि की जाती है और सेवा से प्रसन्न होकर दुर्लभ और अतुल्य भक्ति का वरदान देती है साथ ही सभी मनोरथ सिद्ध करती है।
दस महा विद्या की मुख्य पौराणिक कथा और आरती व बीज मंत्र
मां काली की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार दारू नाम के एक असुर ने कठोर तप से ब्रह्मा जी को प्रसन कर लिया और अमर होने का वरदान मांगा ब्रह्मा जी ने ऐसा वरदान देने से इनकार कर दिया। तब उसने कहा आप मुझे वरदान दें कि मेरी मृत्यु किसी स्त्री के हाथों से हो ब्रह्मा जी ने उसे ऐसा वरदान दे दिया यह वरदान प्राप्त करके दारू बहुत प्रसन्न हुआ और उसे घमंड हो गया कि मुझे कोई पुरुष नहीं मार सकता तो कोई स्त्री कैसे मारेगी उसने देवताओं और ब्राह्मणों को परेशान करना शुरू कर दिया और स्वर्ग लोक पर कब्जा कर लिया जिसके बाद सभी देवगण ब्रह्मा जी के पास गए ब्रह्मा जी ने देवताओं से कहा इस दुष्ट का संघार एक स्त्री ही कर सकती है। इसके बाद सभी देवता भोलेनाथ के पास गए और उन्हें सारी व्यथा सुना दी देवताओं की परेशानी सुनकर भोलेनाथ माता पार्वती की और देखे माता पार्वती मुस्कुराने लगी देवी ने अपना एक अंश भगवान शिव में प्रवाहित कर दिया जिसके बाद भोलेनाथ ने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया उनके तीसरे नेत्र से विकराल रूप वाली मां काली उत्पन्न हुई मां काली के मस्तक पर तीसरा नेत्र और चंद्र रेखा थी उनके भयानक और विशाल रूप को देखकर देवगण भी भागने लगे जिसके बाद मां काली ने दारु के साथ युद्ध किया और सभी असुरों का संहार कर दिया इसके बाद भी मां काली का क्रोध शांत नहीं हुआ उनके क्रोध अग्नि से सारा संसार जलने लगा तभी देवता भोलेनाथ के पास गए और मां काली को शांत करने की प्रार्थना करने लगी भोलेनाथ ने मां काली को शांत करने की बहुत कोशिश करी लेकिन जब शांत नहीं हुई तब भोलेनाथ उनके मार्ग में लेट गए तब माता के चरण भोलेनाथ पर पड़े तो वे एकदम से शांत हो गई इसके बाद मां काली ने शुंभ निशुंभ और रक्तबीज जैसे असुरों को मार कर पृथ्वी की रक्षा करें।
महाकाली माता का बीज मंत्र -
ॐ क्रिं क्रिं क्रिं हूं हूं हीं हीं दक्षिणे कालिके क्रिं क्रिं क्रिं हूं हूं हीं हीं स्वाहा!!
आरती मां काली की :-
अम्बे तू है जगदम्बे काली,
जय दुर्गे खप्पर वाली ।
तेरे ही गुण गाये भारती,
ओ मैया हम सब उतरें, तेरी आरती ॥
तेरे भक्त जनो पर,
भीर पडी है भारी माँ ।
दानव दल पर टूट पडो,
माँ करके सिंह सवारी ।
सौ-सौ सिंहो से बलशाली,
अष्ट भुजाओ वाली,
दुष्टो को पल मे संहारती ।
ओ मैया हम सब उतरें, तेरी आरती ॥
अम्बे तू है जगदम्बे काली,
जय दुर्गे खप्पर वाली ।
तेरे ही गुण गाये भारती,
ओ मैया हम सब उतरें, तेरी आरती ॥
माँ बेटे का है इस जग मे,
बडा ही निर्मल नाता ।
पूत - कपूत सुने है पर न,
माता सुनी कुमाता ॥
सब पे करूणा दरसाने वाली,
अमृत बरसाने वाली,
दुखियो के दुखडे निवारती ।
ओ मैया हम सब उतरें, तेरी आरती ॥
अम्बे तू है जगदम्बे काली,
जय दुर्गे खप्पर वाली ।
तेरे ही गुण गाये भारती,
ओ मैया हम सब उतरें, तेरी आरती ॥
नही मांगते धन और दौलत,
न चांदी न सोना माँ ।
हम तो मांगे माँ तेरे मन मे,
इक छोटा सा कोना ॥
सबकी बिगडी बनाने वाली,
लाज बचाने वाली,
सतियो के सत को सवांरती ।
ओ मैया हम सब उतरें, तेरी आरती ॥
अम्बे तू है जगदम्बे काली,
जय दुर्गे खप्पर वाली ।
तेरे ही गुण गाये भारती,
ओ मैया हम सब उतरें, तेरी आरती ॥
मां तारा देवी कथा
गुप्त नवरात्रि के दूसरे दिन मां काली के स्वरूप महाविद्या तारा देवी की पूजा अर्चना करने का विधान है तारा देवी को शमशान की देवी कहा जाता है पौराणिक कथाओं के अनुसार जब समुद्र मंथन के समय भगवान शिव ने विषपान किया था जिससे उनके शरीर में काफी जलन और कई तकलीफें हो रही थी ऐसे में मां काली के दूसरे स्वरूप तारा देवी ने भगवान शंकर को स्तनपान कराया तब जाकर भगवान शिव के शरीर की जलन शांत हुई। तारा देवी मां काली का ही रूप है तारा देवी नरमुंडो की माला पहनती है और इन्हें तंत्र विद्या की देवी माना गया है। इनकी पूजा से सारे कष्ट मिट जाते हैं तारा देवी के भी तीन रूप है उग्रतारा एक जटा और नील सरस्वा देवी है। तारा देवी की उत्पत्ति के पद हेतु देवी महाकाली रूपधारण किया था सर्वप्रथम रत्नदीप में तथा वाक्य को देवी काली के मुख से सुनकर शिवजी ने महाकाली से पूछा आदि काल में भयंकर मुंह वाले रावण का विनाश किया तब आश्चर्य से युक्त आपका वह स्वरूप तारा नाम से विख्यात हुआ उस समय समस्त देवताओं ने आप की स्तुति की थी तब आपने अपने हाथों में खड़क नरमुंड व अभय मुद्रा धारण की हुई थी मुख से चंचल जीभा बहार निकली हुई बहुत भयंकर प्रतीत हो रही थी। आप का विकराल रूप देखकर सभी देवता भय से भागने लगे। विकराल भयंकर रूद्र रूप को देखकर उन्हें शांत करने के निमित्त ब्रह्माजी आपके पास गए थे समस्त देवताओं को ब्रह्मा जी के साथ देखकर देवी लज्जित हो आप खड़क सज्जा निवारण की चेष्टा करने लगी थी रावण वध के समय आप अपने रूद्र रूप के कारण नग्न हो गई थी तथा स्वयं ब्रह्मा जी ने आप की लज्जा निवारण हेतु आपको व्याघ्र चर्म प्रदान किया था इसी रूप में देवी लंबोदर के नाम से भी विख्यात हुई तारा रहस्य तंत्र के अनुसार भगवान राम केवल निमित्त मात्र ही थे वास्तव में भगवान राम की विध्वंसक शक्ति देवी तारा ही थे जिन्होंने लंकापति रावण का वध किया था। इस प्रकार तारा देवी का प्राकट्य हुआ जिन्होंने भगवान राम की भी युद्ध में सहायता की
मां त्रिपुर सुंदरी कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी त्रिपुर सुंदरी के उत्पत्ति का रहस्य सतीव योग के पश्चात भगवान शिव ध्यान साधना में रहते थे तब उन्होंने अपने संपूर्ण कर्म से त्याग कर दिया जिसके कारण तीनों लोकों के संचालक मे बाधाएं उत्पन्न होने लगी उधर तारकासुर ने ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया कि केवल शिव के पुत्र के हाथों ही उसकी मृत्यु होगी समस्त देवताओं ने भगवान शिव को ध्यान से जगाने के लिए कामदेव और उनकी पत्नी रति देवी को कैलाश भेजा। कामदेव ने मोहिनी बाण से भगवान शिव पर प्रहार किया जिसके फलस्वरूप शिव ध्यान भंग हो गए क्रोध में आकर शिव का तीसरा नेत्र खुल गया जिससे भयंकर अग्नि निकलने लगी जिससे कामदेव भस्म हो गए। तब देवी रति जोर-जोर से विलाप करने लगी कामदेव की पत्नी रति द्वारा दर्दनाक विलाप करने पर भगवान शिव ने कामदेव को पुनः द्वापर युग में भगवान कृष्ण के पुत्र के रूप में जन्म धारण करने का वरदान दिया इसके बाद वे अंतर्ध्यान हो गए सभी देवताओं और रति के जाने के पश्चात भगवान शिव के एक गण द्वारा कामदेव की भस्म से मूर्ति निर्मित की गई और उस निर्मित मूर्ति से एक पुरुष पैदा हो गया लेकिन उस पुरुष में असुर के गुण आ गए । पुरुष भगवान शिव की स्तुति करने लगा उसका नाम बांट रखा गया धीरे-धीरे वह तीनों लोकों में भयंकर उत्पात मचाने लगा देवराज इंद्र के राज्य के सम्मान ही उसने स्वर्ग जैसे राज्य का निर्माण किया तथा उसमें राज करने लगा इसके बाद अपने अहंकार में आकर भांडासुर ने स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर दिया। देवराज इंद्र और स्वर्ग राज्य को चारों ओर से घेर लिया तब इंद्र नारद मुनि की शरण में गए और इस समस्या के निवारण का उपाय पूछने लगे देवर्षि नारद ने मां शक्ति की यथा विधि अपने रक्त तथा मांस से आराधना करने की बात कही तब मां ने प्रसन्न होकर भण्डासुर का वध कर देवराज पर कृपा की और समस्त देवताओं को भय से मुक्त किया।
मां भुवनेश्वरी कथा
महा लक्ष्मी स्वरूपा आदिशक्ति भगवती भुवनेश्वरी भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचरी हैं। जगदंबा भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य प्रदान और अरुण है भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियां प्रदान करना इन का स्वाभाविक गुण है दस महाविधाओं में ये पांचवें स्थान पर परिगणित है। देवी पुराण के अनुसार मूल प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेश्वरी है ईश्वर रात्रि में जब ईश्वर के जगत रूप का व्यवहार का लोप हो जाता है उस समय ब्रह्म केवल अपनी अव्यक्त प्रकृति के साथ शेष रहता है। तब ईश्वर रात्रि के अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्वरी कहलाती है। अंकुश और पाश इनके मुख्य आयुध है अंकुश नियंत्रण का प्रतीक है और पाश राग अथवा आशक्ति का प्रतीक है इस प्रकार सर्व रूपा मूल प्रकृति ही भुवनेश्वरी है जो विश्व को वरण करने के कारण वामा शिव माए होने से जेष्ठा तथा कर्म यंत्र अनुदान और जीवों को दंडित करने के कारण राऊतरी कही जाती है। भगवान शिव बाम भाग ही भुवनेश्वरी कहलाता है भुवनेश्वरी के संग से ही भगवान शिव को सर्वेश की योग्यता प्राप्त होती है। महानिर्वाण तंत्र के अनुसार संपूर्ण महाविद्या भगवती भुवनेश्वरी की सेवा में सलगन रहती हैं दस करोड़ मंत्र इनकी सदा आराधना करते हैं 10 महाविद्या ही दस सोपान है काली तत्वों से निर्मित होकर कमला तत्व तक की दस स्थितियां हैं जिनसे अव्यक्त भुवनेश्वर ब्रह्मांड का रूप धारण कर सकती हैं। कमला से अर्थात व्यक्त जगत से क्रमशः होकर रूप में मूल प्रकृति बन जाती है इसलिए इन्हें काल की जन्मदात्री भी कहा जाता है। दुर्गा सप्तशती के 11 अध्याय के मंगलाचरण में भी कहा गया है कि में भुवनेश्वरी देवी का ध्यान करता हूं उनके अंगों की शोभा प्रातः काल के सूर्य देव के समान है उनके मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट है नेत्रों से युक्त देवी के मुख पर मुस्कान की घटा छाई रहती है उनके हाथों में पाश, अंकुश और वरद है वे अभय मुद्रा शोभा पाते हैं इस प्रकार के विरह तंत्र भी पुष्ट होती है इस प्रकार के अंतर से काली और भुवनेश्वरी दोनों में अभेद है। अव्यक्त प्रकृति भुनेश्वरी ही रक्त वर्ण काली है देवी भागवत के अनुसार दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचारों से संन्तप्त होकर देवताओं और ब्राह्मणों ने हिमालय पर सर्व कारण स्वरूपा भगवती भुवनेश्वरी की आराधना के थे उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवती भुवनेश्वरी तत्काल प्रकट हो गई उन्होंने अपने हाथों बाण कमल पुष्प तथा शक मूल लिए हुई थी। उन्होंने अपने नेत्रों अश्रु जल की सहशत्रो धाराएं प्रकट की जिससे भूमंडल के सभी प्राणी तृप्त हो गया समुद्र तथा सरिताओ में अगाध जल भर गया और समस्त औषधियां सींच गई अपने हाथ में लिए गए शकों और फल मूल से प्राणियों का पोषण करने के कारण भगवती भुवनेश्वरी ही शताक्षी तथा शाकंभरी नाम से विख्यात हुई इन्होंने ही दुर्ग में मारकर उसके द्वारा अपहृत वेदों को देवताओं को पुन: सौपा था उसके बाद भगवती भुवनेश्वरी का एक नाम दुर्गा प्रसिद्ध हुआ भगवती भुवनेश्वरी की उपासना पुत्र प्राप्ति के लिए विशेष पुत्र प्राप्ति के लिए विशेष फल प्रदान है रुद्र यामल में इनका कवच नील सरस्वती तंत्र में इनका हृदय तथा तंत्रवण में इनका सहस्त्रनाम संतलित है।
मां छिन्नमस्ता कथा
छिन्नमस्ता वाली यानी एक अलौकिक शक्ति मां छिन्नमस्ता को चिंतपूर्णी माता भी कहा जाता है। छिन्नमस्ता माता के गाना काली खुलने की जाती है इनका संबंध महाप्रलय से है महाप्रलय का ज्ञान करवाने वाली यह महाविद्या देवी भगवती का ही रूद्र रूप है महर्षि याज्ञवल्क्य परशुराम, श्री मत्स्येंद्रनाथ तथा गोरखनाथ जी ने इसी विद्या की उपासना की थी। देवी भगवती की इस शक्ति को वज्र वेरोजनी भी कहा जाता है देवी छिन्नमस्ता का घनिष्ठ संबंध कुंडलिनी नामक प्राकृतिक ऊर्जा से है जो मानव शरीर में छिपी हुई एक प्राकृतिक शक्ति है। जिस प्रकार माता छिन्नमस्ता अपना ही रक्त पीकर सबल रहती हैं। ठीक उसी प्रकार जीवो में विराजमान कुंडलिनी शक्ति उनके स्वयं के ही रक्त से ही पोषित होती है कुंडलिनी शक्ति जागृत होने पर माया का प्रभाव क्षीण हो जाता है माता के पांव के नीचे कामदेव और रति हैं जो काम ऊर्जा का प्रतीक है मां छिन्नमस्ता के सच्चे मन से पूजा करने पर सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। मां भवानी अपनी दो सहचरियो के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने के लिए गई स्नान के बाद दोनों को बहुत तेज भूख लगने लगी तब उन्होंने मां भवानी से कहा कि हमें बहुत भूख लग रही है। मां ने उन्हे कुछ देर इतजार करने को कहा पर भूख के कारण उन्हें पीड़ा होने लगी और उनका रंग काला होने लगा तब दोनों ने विनम्र भाव से मां को कहा मां तो भूखे बच्चे को बिना देर किए ही खाना देती है ऐसा सुनकर मां भवानी ने एक ही पल में खड़क से अपना सिर काट दिया और कटा हुआ सर उनके बाएं हाथ में गिरा और तीन रक्त धाराएं बह निकली दो धाराओं को उन्होंने दोनों सहचरियो की ओर प्रवाहित कर दिया और तीसरी धारा ऊपर की ओर बह रही थी उसे देवी ने स्वयं पिया बाकी दोनों सहचरियो रक्तपान करके तृप्त हो गई मान्यता है तभी से मां भवानी के इस रूप को छिन्नमस्ता रूप में जाना जाने लगा जय मां छिन्नमस्ता मार्कंडेय पुराण के अनुसार जब चण्डी ने राक्षस को घोर संग्राम में पराजित कर दिया। तब उनकी दोनों सखियां जया और विजया युद्ध के बाद भी रक्त की प्यासी थी उन्होंने मां से कहा कि हम दोनों को बहुत भूख लगी है सब मने उनकी भूख को शांत करने के लिए अपना सर काट दिया और अपने खून से उन दोनों की प्यास बुझाई तभी तो मां अपने कटे हुए सिर को अपने हाथ में पकड़े हुए दिखाई देती है उनकी गर्दन से निकल रही रक्त की धाराएं उनके दोनों तरफ खड़ी हुई दो योगनिया पी रही होती हैं। जय मां छिन्नमस्ता
मां त्रिपुर भैरवी कथा
मां की विधि विधान से पूजा करने पर भक्तों के सभी कष्टों का निवारण हो जाता है यदि उन मे अहंकार है तो उसका नाश हो जाता है। जीवन में सफलता प्राप्त होती है और धन संपदा की भी कमी नहीं रहती है इनकी साधना करने से 16 कलाओं में निपुण पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है माता त्रिपुर भैरवी माता काली का स्वरूप मानी जाती है यह महाविद्या की छठी शक्ति मानी जाती है त्रिपुर का अर्थ है तीनों और भैरवी का संबंध काल भैरव से है भयानक स्वरूप और उग्र स्वभाव वाले काल भैरव भगवान शिव की विकराल अवतार है जिनका संबंध विनाश से है माता त्रिपुर भैरवी का स्वरूप मां काली से मिलता-जुलता है और उनके बाल खुले हुए हैं उनका दूसरा नाम छोड़ दी है उनके बाल खुले हुए रहते हैं उनका दूसरा नाम षोडशी भी है त्रिपुर भैरवी को रूद्र भैरवी, चैतन्य भैरवी, नित्य भैरवी, शमशान भैरवी, संपदा भैरवी आदि नामों से भी जाना जाता है। एक बार मां काली की इच्छा हुई कि वह दोबारा अपना गोरवर्ण प्राप्त करें यह सोचकर वह अपने स्थान से अंतर्ध्यान हो गए मां काली को अपने आसपास ना देखकर भगवान शिव चिंतित हो जाते हैं। तब वे देव ऋषि नारद से उनके विषय में पूछते हैं तो नारद जी कहते हैं कि माता के दर्शन तो सुमेरु के उत्तर में हो सकते है। शिव जी की आज्ञा से नारद जी सुमेरू के उत्तर में मां काली को खोजते हैं जब वे मां के पास पहुंचते हैं तो उनके समक्ष शिवजी के विवाह का प्रस्ताव रखते हैं इससे मां काली नाराज हो जाती है और उनके शरीर से षोडशी विग्रह प्रकट होता है उससे छाया विग्रह त्रिपुर भैरवी प्रकट होती हैं मां के इस रूप को शत-शत प्रणाम त्रिपुर भैरवी की पूजा करने से व्यापार में वृद्धि होती है सौभाग्य आरोग्य सुख की प्राप्ति होती हैं।
मां धूम्रवती कथा
मां स्वेत वस्त्र धारण किए हुए खुले बालों में एक बूढ़ी विधवा के रूप में दिखाई गई हैं और अशुभ और आकर्षक माने जाने वाली चीजों से जुड़ी हुई हैं जैसे कोआ और चातुर्मास की अवधि जिसमें विवाह जात कर्म संस्कार गृह प्रवेश आदि सभी मंगल कार्य निषेध माने गए हैं धूमावती देवी को आमतौर पर श्मशान घाट में एक घोड़े के रथ पर चित्रित किया जाता है या फिर कोए की सवारी पर देवी का मुख्य अस्त्र सूप है जिसमें देवी समस्त विश्व को समेटकर महाप्रलय करती हैं देवी के विभिन्न रूपों में महाविद्या धूमावती एक ऐसी शक्ति है जो व्यक्ति की दीन हीन अवस्था का कारण है 10 महाविद्याओं में इन्हें दारू विद्या कहकर पूजा जाता है शाप देने नष्ट करने तथा सहार करने की जितनी भी क्षमताएं हैं क्रोध मई ऋषियों की मूल शक्ति मां धूमावती हैं जैसे दुर्वासा अंगिरा परशुराम आदि इस संसार में कलह की देवी होने के कारण इन्हें कल ही कहा जाता है इनका स्वभाव बहुत ही स्थाई है इन्हें लक्ष्मी माता की बड़ी बहन लक्ष्मी के रूप में पूजा जाता है जहां लक्ष्मी माता धन की देवी लक्ष्मी के रूप में धूमावती विद्या उनकी बहन है दीपावली के अवसर पर धूमावती विद्या प्रस्थान करती है और श्री लक्ष्मी का आगमन होता है इसीलिए नरक चतुर्दशी के दिन भर से कूड़ा करकट साफ करके उसे बाहर निकाल कर मां अलक्ष्मी से प्रार्थना की जाती है। हे माता हमारे घर से इस दरिद्रता को दूर ले जाइए धूमावती को एक महान शिक्षक के रूप में भी माना जाता है जो ब्रह्मांड के अंतिम ज्ञान को प्रकट करता है जो मनुष्य को अपने भीतर की सच्चाई की खोज करना सिखाता है मान्यता है कि देवी धूमावती की पूजा करने से एकांत और सांसारिक चीजों के प्रति अरुचि की भावना उत्पन्न होते हैं जिसे आध्यात्मिक खोज के उच्चतम विशेषताओं के रूप में माना जाता है इसीलिए धूमावती देवी की उपासना अकेले भटकने वाले कुंवारे लोगों और विधवाओं को ही करनी चाहिए विवाहित लोगों को सलाह दी जाती है कि वह धूमावती माता की पूजा ना करें। लेकिन सुहागन स्त्रियां अपने पति और पुत्र की दीर्घायु के लिए दूर से ही धूमावती माता की पूजा कर सकती है। एक बार माता सती को बहुत भूख लग रही थी परंतु उस समय कैलाश पर्वत पर कुछ भी खाने के लिए नहीं था वह भूख से परेशान होकर भगवान भोलेनाथ के पास गई और उनसे भोजन मांगने लगी परंतु भगवान शिव समाधि में लीन थे माता सती के बार बार निवेदन करने पर भी शिव शंकर भगवान अपने ध्यान से नहीं उठे तब सती माता की भूख और तेज हो गई जब खाने के लिए कोई चीज नहीं मिली तो उन्होंने अपने श्वास खींचकर भगवान शिव को ही निगल लिया शिव भगवान के कंठ में विष होने के कारण मां के शरीर से धुआं निकलने लगा और उनका स्वरूप श्रृंगार विहीन तथा विकृत हो गया और मां सती की भूख शांत हो गई उसके बाद भगवान शिव माया के द्वारा मां सती के शरीर से बाहर आ गए और सती के धुएं से व्याप्त हुए शरीर को देखकर कहने लगे कि जब तुमने मेरा ही भक्षण कर लिया तो तू विधवा हो गई शिव भगवान की ऐसी बातें सुनकर सती माता निराश हो गई तब शिवजी ने कहा देवी आप निराश ना हो क्योंकि सृष्टि के संचालन के लिए तथा पापियों को दंडित करने के लिए एक रहस्यमई स्वरूप की आवश्यकता थी जिसे युक्ति पूर्वक आपके द्वारा उत्पन्न किया गया है क्योंकि इस माह कार्य को आपके सिवा और कोई नहीं कर सकता आज से आप इस वेश में भी पूछी जाएंगी इसी कारण मां सती का नाम देवी धूमावती पड़ा था।
मां बगलामुखी कथा
बगलामुखी, पीतमवार,कांगड़ा बगलामुखी, ब्रह्मास्त्र विद्या आदि नामों से जाना जाता है देवी बगलामुखी समुद्र के मध्य स्थित मणिमई दीप में अमूल्य रत्नों से सुसज्जित सिंहासन पर विराजमान हैं। बगलामुखी माता का रंग गोरा शरीर पतला और स्वर्ण की तरह क्रांति मान है उनके तीन नेत्र हैं और वह अपने मस्तक पर अर्धचंद्र धारण करती हैं देवी बगलामुखी पीले रंग के वस्त्र और पीले फूलों की माला धारण करती हैं उनके सभी आभूषण स्वर्ण के हैं तथा अमूल्य रत्नों से जड़े हुए हैं मां बगलामुखी के सिर पर सोने का मुकुट है और बगलामुखी माता चंपा के फूल तथा हल्दी की गांठ आदि पीले रंग के तत्वों की माला धारण करती है मां बगलामुखी रतनमई रथ पर सवार होकर शत्रुओं का नाश करती है उनका मुख मंडल अत्यंत सुंदर है जिस पर सदा मुस्कान छाई रहती जो मन को मोह लेती है देवी ने अपने बाएं हाथ से दैत्य की जीवा को पकड़ कर खींच रखा है तथा दाएं हाथ में गदा पकड़ी हुई है जिससे शत्रु सदा ही भयभीत रहते हैं देवी के जीवा पकड़ने का अर्थ है कि बगलामुखी माता बोलने की शक्ति देने और लेने दोनों के लिए पूजी जाती हैं कुछ स्थानों पर मां बगलामुखी मृत शरीर के ऊपर विराजमान हैं तथा शत्रु की जीवा को पकड़े हुए हैं जो मनुष्य सच्चे मन से बगलामुखी माता की आराधना करते हैं उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता शत्रु के नाश व सिद्धि वाद विवाद में विजय प्राप्त करने के लिए मां बगलामुखी की उपासना की जाती है इनकी उपासना से भक्तों का जीवन हर प्रकार की बाधाओं से मुक्त हो जाता है शांति कर्म में धन-धान्य के लिए तथा पौष्टिक कर्म में देवी की शक्तियों का प्रयोग किया जाता है बगलामुखी माता के भक्तों सभी सांसारिक सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करते हैं मां चाहे तो शत्रु की जीवा को ले सकती है और भक्तों को मधुर और दिव्य वाणी का आशीष देती है देवी की पूजा करते समय पूर्व की तरफ रखना चाहिए और उन्हें पीले चावल पीले फूल और पीले रंग का प्रसाद अर्पित करें त्रेता युग में जब राम और रावण के बीच युद्ध हो रहा था और रावण के बड़े बड़े योद्धा राक्षस मारे जा चुके थे तब रावण के पुत्र मेघनाथ ने स्वयं रणभूमि में जाने का फैसला किया रणभूमि में जाने से पहले उसने शत्रु शमन के लिए और अपने पिता दशानन रावण की जीत के लिए शक्ति स्वरूपा देवी मां बगलामुखी का आवाहन और अनुष्ठान निर्जन और एकांत स्थान में शुरू किया इस अनुष्ठान की निर्वाघ्न समाप्ति के लिए सभी प्रमुख दानवों को तैनात कर दिया और उन्हें आदेश दिया कि जो भी इस यज्ञ को हानि पहुंचाने की चेष्टा करें उसका तुरंत ही वध कर दिया जाए इसके साथ ही मेघनाथ ने पूरे आत्मविश्वास उत्साह और पूरी श्रद्धा के साथ देवी का अनुष्ठान आरंभ किया परंतु श्री हरि विष्णु जी के अवतार रामचंद्र जी को इसका आभास हो गया कि अगर माता बगलामुखी इस यज्ञ के बाद जागृत हो गई तो वह काली का रूप धारण करके वानर सेना का विनाश कर देंगे और उनके साथ चलने वाली योगिनिया योद्धाओं का खून पी जाएगी इस शंका के चलते उन्होंने अपने परम भक्त हनुमान और बाली पुत्र अंगद को यज्ञ भंग करने की आज्ञा दी श्री राम की आज्ञा पालन करते हुए हनुमान और अंगद अपने सेनापतियों को लेकर उस गुप्त जगह पर छद्म वेश धारण करके पहुंच गए और वहां पराक्रम इंद्रजीत का यज्ञ अनुष्ठान पूरा होने से पहले ही भंग कर दिया अगर मेघनाथ का वह यज्ञ पूरा हो जाता तो श्री राम का लंका पर विजय पाना कठिन हो जाता क्योंकि शक्ति स्वरूपा देवी बगलामुखी अपने साधकों के सभी शत्रुओं का शमन कर देते हैं देवी बगलामुखी का प्रादुर्भाव गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में माना जाता है कहते हैं कि हल्दी के रंग वाले जल से देवी बगलामुखी प्रकट हुई थी हल्दी का रंग पीला होने के कारण इन्हें पीतांबरा देवी भी कहा जाता है। सतयुग में एक बार ब्रह्मांड में विनाश उत्पन्न करने वाला एक तूफान आया जिससे संपूर्ण विश्व नष्ट होने लगा चारों ओर हाहाकार मच गया और सभी लोग संकट में पड़ गए यह तूफान सब कुछ नष्ट भ्रष्ट करता हुआ आगे की ओर बढ़ रहा था जिसे देखकर भगवान विष्णु चिंतित हो गए उन्हें इस समस्या का कोई हल ना मिला तो वह भगवान शिव को याद करने लगे तब भगवान शिव ने उनसे कहा शक्ति के अलावा अन्य कोई इस विनाश को रोक नहीं सकता अतः आप उनकी शरण में जाएं तब भगवान विष्णु ने हरिद्रा नदी के निकट पहुंचकर कठोर तप किया विष्णु जी के तरफ से देव शक्ति प्रसन्न हो गई और हरिद्रा नदी में जल क्रीड़ा करते हुए बगलामुखी के रूप में प्रकट हुए महाविद्या बगलामुखी ने विष्णु जी से प्रसन्न होकर उन्हें इच्छित वर दिया और सृष्टि का विनाश रोक दिया बोलो बगलामुखी माता की जय
मां मातंगी कथा
आदिशक्ति भगवती की उपासना बहुत पुराने समय से की जा रही है 10 महाविद्याओं को दो कूलो में विभाजित किया गया है एक है काली कुल तथा दूसरा है श्री कुल काली कुल में महाकाली तारा तथा भुवनेश्वरी देवी आते हैं और श्री कुल में त्रिपुर सुंदरी माता भैरवी माता धूमावती मातंगी बगलामुखी कमला और छिन्नमस्तिका माता आती है। श्री कुल में आने वाली मातंगी देवी 10 महाविद्याओं में नौवें स्थान पर हैं मातंगी देवी को उचित चांडालनी या महापिशाचिनी भी कहा जाता है इन के विभिन्न रूप हैं उच्छिष्ट मातंगी,राज मातंगी, सुमुखी वैश्य मातंगी और कर्ण मातंगी देवी मातंगी वैदिक सरस्वती का तांत्रिक रूप है। वास्तव में यह सरस्वती माता का ही रूप है और वाणी, संगीत ,ज्ञान, विज्ञान, सम्मोहन, वशीकरण तथा वह की अधिष्ठात्री देवी है सभी महाविद्याओं से वह माया आकर्षण और वश में करने के कार्य संभव हैं परंतु इस क्षेत्र का आधिपत्य मातंगी देवी को प्राप्त हैं माता मातंगी वचनों के द्वारा ही त्रिभुवन में समस्त प्राणियों तथा अपने घोर शत्रु को वश में करने में समर्थ हैं। जिसे सम्मोहन क्रिया कहा जाता है देवी मातंगी का शारीरिक वरण गहरा नीला या श्याम रंग का है वह अपने मस्तक पर अर्धचंद्र को धारण करती हैं 3 नशीले नेत्रों वाली देवी अमूल्य रत्नों से युक्त सिहासन पर विराजमान है और नाना प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित हैं। कुछ स्थानों पर मातंगी देवी कमल के आसन तथा शव पर भी विराजमान हैं देवी मातंगी गुंजा के बीजों की माला को धारण करती हैं इन्हें लाल रंग अत्यधिक प्रिय है इसीलिए मां के ज्यादातर आभूषण लाल रंग के होते हैं और वह लाल रंग के ही वस्त्र धारण करती हैं मातंगी देवी का स्वरूप 16 वर्ष की एक युवती का है जिनका शारीरिक गठन पूर्ण तथा मनमोहक है। चतुरभुजा मातंगी अपने हाथ में वीणा तथा दूसरे हाथ में मानव खोपड़ी धारण करके रखती हैं और बाएं भुजाओं में खड़क तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं इनके आसपास पशु पक्षियों को देखा जा सकता है सामान्य तौर पर मां मातंगी के साथ शुक पक्षी रहते हैं का जिसका अर्थ है तोता मातंगी देवी एक ऐसी देवी है जिन्हें भोग लगाने से पहले उस वह जाता है या यूं कहें माता को झूठा किए बिना भोग नहीं लगाया जाता मातंगी देवी की कृपा से वैवाहिक जीवन सुखमय हो जाता है। यह देवी गृहस्थी के सभी कष्टों का निवारण करती हैं।एक समय जब मां पार्वती को चांडाल स्त्रियों ने झूठा करने के बाद भोग लगाया तभी देवगण और शिव भगवान के भूत प्रेत आदि गण इसका विरोध करने लगे माता पार्वती ने चांडाल स्त्रियों की श्रद्धा को देवी का रूप धारण किया और उनके द्वारा चढ़ाई गई जूठन को ग्रहण किया मातंगी देवी का स्वभाव बहुत ही दयालु है। यह देवता का प्रतीक है, एक बार मातंग मुनि ने सभी जीवो को वश में करने के लिए नाना प्रकार के वृक्षों से परिपूर्ण जंगल में देवी श्री विद्या त्रिपुरा की आराधना की मुनि मातंग के कठोर तप से प्रसन्न होकर देवी त्रिपुर सुंदरी ने अपने नेत्रों से एक श्याम वर्ण की सुंदर कन्या का रूप धारण किया उन्हें राजमातंगी कहां गया जो देवी मातंगी का ही स्वरूप है मातंग मुनि द्वारा किए गए कठोर तप से प्रकट होने के कारण इनका नाम पड़ा था।
मां कमला कथा
मां कमला देवी 10 महाविद्याओं में दसवें स्थान पर हैं नवरात्रि की तरह गुप्त नवरात्रि का समापन भी श्री कमला देवी की आराधना से होता है कमल के पुष्प पर विराजमान होने के कारण इन देवी का नाम कमला पड़ा देवी कमला भाग्य, सम्मान और परोपकार की देवी हैं और सभी दिव्य गतिविधियों में ऊर्जा की तरह उपस्थित रहती हैं। उन्हें भगवान विष्णु की दिव्य शक्ति माना जाता है मां कमला की पूजा करने से विद्या और कौशल में विकास होता है धन और ऐश्वर्य में वृद्धि होती है और गर्भवती महिलाएं यदि इनकी पूजा करें तो उनकी संतान की रक्षा होती है देवी कमला को तांत्रिक लक्ष्मी भी कहा जाता हैं। कमला देवी का संबंध संपन्नता सुख समृद्धि सौभाग्य और वंश के विस्तार से है महाविद्या कमला देवी को लक्ष्मी कमलात्मिका श्री राजराजेश्वरी आदि नामों से जाना जाता है। मां कमला देवी का स्वरूप अत्यंत दिव्य और मनोहर है लक्ष्मी स्वरूपा कमलादेवी कमल के पुष्प पर विराजमान रहती हैं इनका एक मुख और 4 हाथ हैं एक लक्ष्य और 4 कृतियों दूरदर्शिता दृढ़ संकल्प श्रम शीलता और व्यवस्था शक्ति के प्रतीक हैं मां कमला देवी के दो हाथों में कमल तीसरे हाथ में अभय मुद्रा तथा चौथे हाथ में वर मुद्रा रहती है। महामाया कमला देवी की आभा स्वर्ण के समान कांतिमय हैं चार हाथी अपनी सूंड में जल भरकर स्वर्ण कलश को दबाए हुए सदन के दाएं बाएं खड़े रहते हैं लक्ष्मी जी का जल अभिषेक करने वाले हाथियों को परिश्रम और मनोयोग का प्रतीक कहा जाता है। इन हाथियों का कमला देवी के साथ विचित्र संबंध है यह जहां भी रहती है वहां वैभव श्री और सहयोग की कभी कमी नहीं रहती मां कमला देवी का वाहन उल्लू है जो निर्भीकता एवं रात के अंधकार में देखने की क्षमता का प्रतीक है माता कमला देवी की आराधना दक्षिण और वाम दोनों मार्ग से की जाती है माता का एकाक्षरी मंत्र श्री बहुत ही प्रभावशाली है इस मंत्र के ऋषि भृगु हैं मां कमला देवी से धन तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए इस मंत्र का जाप किया जाता है श्री शब्द में अर्थ धन तथा संपत्ति का अर्थ महामाया और बिंदु का अर्थ दुखहर्ता अर्थात दुखों का हरण करने वाले गणपति के रूप में किया जाता है मां कमला देवी प्रसन्न होने पर धन-धान्य और तिजोरिया भर देती है लेकिन यदि प्रसन्न हो जाए तो राजा को भी रंग बना देती है श्रीमद्भागवत के आरंभ में कमला देवी के प्रादुर्भाव की कथा प्राप्त होती है एक बार दुर्वासा मुनि के श्राप के कारण सभी देवता लक्ष्मी या श्री हीन हो गए थे यहां तक कि लक्ष्मी जी भगवान विष्णु जी के पास से भी चली गई थी। परिणाम स्वरूप सभी दरिद्र तथा सुख वैभव से रहित हो गए थे श्री लक्ष्मी जी को पुनः प्राप्त करने के लिए देवताओं तथा व्यक्तियों ने समुद्र का मंथन किया समुद्र मंथन से 14 प्रकार के रत्न प्राप्त हुए उन 14 रत्नों में सुख समृद्धि की देवी मां कमला देवी का प्रादुर्भाव हुआ विवाह के पश्चात कमला लक्ष्मी नाम से विख्यात हुई उसके बाद कमला देवी ने विशेष स्थान प्राप्त करने के लिए श्री विद्या की कठोर आराधना की उनके कठोर तप से संतुष्ट होकर देवी त्रिपुरा ने उन्हें श्री की उपाधि दी और महाविद्याओं में दसवां स्थान दिया श्री की उपाधि लक्ष्मी जी के लिए मात्रि भूमि के रूप में सांसारिक क्षेत्र का प्रतिनिधि करती है। जिसे पृथ्वी माता के रूप में संदर्भित किया जाता है उसी समय से मां कमला देवी का संबंध धन समृद्धि तथा राज्यों सुखों से हैं मां कमला देवी गुणों से संपन्न है धन तथा सौभाग्य की अधिष्ठात्री देवी हैं इन्हें साफ सफाई पवित्रता और निर्मलता अति प्रिय है रोशनी से तो मां कमला देवी का घनिष्ठ संबंध हैं उन्हीं स्थानों को अपना निवास स्थान बनाते हैं जहां अंधकार ना हो यह देवी अनंत समृद्धि यश प्रतिष्ठा शासना आदि शक्तियों की स्वामिनी होने के कारण आदि काल से ही राजघरानों तथा अन्य व्यक्तियों के द्वारा पूजित होती हैं इसलिए इन्हें राजेश्वरी कहा जाता है।
मंत्रों के जाप का लाभ
- इन दस महा देवियों का पाठ और मंत्रो के जाप करने से व्यक्ति को भगवान शिव और माता पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त होता हैं।
- इस पाठ को करने से व्यक्ति को धन, धान्य, यश आदि की प्राप्ति होती है।
- यह पाठ रोगों से मुक्ति दिलाता है।
- इस पाठ को करने से कुंडली जागरण, समाधि, बुद्धि की प्राप्ति होती है।