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राह निकल आई - हिंदी कहानी (Hindi Story)
बारिश के दिन बीत गए थे राते ठंडी होने लगी थी। आज लंबे अरसे के बाद मे मैके आकर छत पर माँ के साथ बैठी बतिया रही थी। सुबह ही मुझे यहां छोड़कर मेरे पति अपने बिजनेस के काम से बाहर चले गए थे। यहां दिवाली की सफाई जमकर चल रही थी। छत पर माँ गमलों के पास खड़ी कुछ सोच रही थी।
यहां आने का एक और खास आकर्षण था, वो यह कि इस दिवाली छोटे भैया रवींद्र भी यहां आया हुआ था उसने अपनी कंपनी बदली थी, तो बीच का जो समय था उसमें घर आ गया था और घर की मरम्मत में भिड़ा था।
माँ कह रही थी, रवीन्द्र से ये गमले भी कम करवाने का कहती हूं, जब तेरे पापा थे तो बात अलग थी।
मुझे पुराना सब याद आने लगा था, पापा ने यहां ढेरों फूल और सब्जियों के पौधे लगा रखे थे। धनिया, मिर्च और टमाटर उस कोने में लगे रहते थे। मैं भागकर वहा से धनिया तोड़कर माँ को किचन में देकर आती थी। तभी इनका फोन आ गया। मैं वर्तमान में लौट आई, कह रहे थे कि वे कल शाम तक, मतलब भाई दूज की शाम को जरूर लौट आएंगे।
विचार गंगा फिर बहने लगी थी। मेरी ससुराल काफी अंदर गांव में है, इसलिए ये शहर आकर व्यवसाय कर रहे है।चार साल पहले इनका कितना बढ़िया धंधा चल रहा था, मगर कोरोना काल में सब ठप्प हो गया। पिछले साल फिर से नई शुरुआत की है मगर पैसा उसमें बहुत लग रहा है, बहुत परेशान है वे। ऊपर से अब किराया भी बढ़ रहा है मकान का। अचानक मन में विचार आया कि कहीं से कोई लाटरी खुल जाए तो मजा आ जाए, मगर अपने इस विचार पर मैं खुद हंस पड़ी।
तभी रविन्द्र फोन पर बातें करते करते इधर ही आया और पूछा 'दीदी', हमें भी बता दो क्या बात है, हम भी हंस लेंगे और वो पास ही नीचे बैठ गया। मुझसे हालचाल पूछता रहा ढेर सारे। मैने इनके धंधे की परेशानी के हाल नही बताए क्योंकि इन्होंने बिलकुल मना कर रखा था।
माँ पास आकर भैया से बोलीं, हो सके तो बाजू का यूनिट जो किराये से देते है बेच-बाचकर अलग कर, अब संभलता नहीं मुझसे।
रविन्द्र बोला, माँ, सम्पति बेचना सरल है मगर बनाना कठिन। इसकी मरम्मत करवा रहा हूं। दीदी, कल दूज पर क्या गिफ्ट चाहिए आपको?
मैं हंस दी थी, तू तो छोटा भाई है। फिर मजाक में कहा, माँ, तू और यह घर सब गिफ्ट में चाहिए। हम सब हंस पड़े थे।
अगला दिन त्योहार के मूड में गुजरा रहा था। मैने इन्हे फोन लगाया मगर व्यस्त आया। बार - बार लगाया फोन मगर लगा ही नहीं, मन में चिंता होने लगी थी। मेरे मन की उदासी बढ़ती जा रही थी। मैने भाई दूज पूजा की तैयारी कर ली, समय गुजर रहा था।
माँ बोली, रवि कहा है? मना लो भाई दूज।
तभी गेट पर एक ऑटो रुकने की आवाज आई, मैं बाहर लपकी। आश्चर्यचकित होकर रह गई थी। ये चार-पांच सूटकेस लिए गेट पर खड़े थे।
मैंने पूछा, ये क्या है? भाई ने जवाब दिया, दीदी, ये भाई दूज की भेंट हैं। सामान पकड़ो और रख दो उधर बाजू के घर में। अब यहीं रहना है, बाकी सामान कल- परसो आ जाएगा।
मैंने कुछ पूछना चाहा मगर ये खामोश रहे। कुछ देर बाद हम अंदर आ बैठे थे। भाई दूज की पूजा भी हो गई, तब जाकर भैया ने पूरी बात बताई।
दीदी, माँ, मैंने जीजाजी से पहले दो-तीन बार बाते की थी। घर का जो हिस्सा हम किराये पर देते है उसे बेचकर कुछ राशि धंधे में लगाने बाबत। मगर जीजाजी बोले भाई सम्पति बनाना कठिन होता है, हम इसका दूसरा उपाय करेंगे। हम यही आकर रहेंगे मां के साथ। जाहिर है हमारा किराया बचेगा और यदि धंधे के लिए पैसों की जरूरत हुई तो इस घर के आधार पर बैंक लोन ले लेंगे। पिताजी ने इतने जतन से यह घर बनाया होगा। उसे हम सब यथा सम्भव संभालेंगे। तो ये है दीदी, भाई दूज की गिफ्ट।
मैं और माँ तो भावविभोर से भैया और इन्हें देखे जा रहे थे। मैंने भैया से कहा, तू तो अब मुझसे भी बड़ा हो गया।
घर का वातावरण भावुक हो गया था। मैंने देखा बाजू में माँ नहीं दिखाई दी।अंदर जाकर देखा माँ पूजा स्थल पर हाथ जोड़े खड़ी थी। इधर आकर बोली, बेटा रवि और जमाई जी धन्यवाद आपके समझदारी भरे इस निर्णय के लिए। मुझे एक साथ सब मिल गया था। बाहर शाम सुहानी होती जा रही थी। आसमान खुल गया था, ठंडी हवा का एक झोंका आया और हमारे हृदयाओ में पर्व की खुशियां बेहिसाब बढ़ा गया।
परवाह - Hindi Story
मयंक आज बहुत खुश था। उसका दसवां जन्मदिन जो था। शाम को उसके दोस्त घर पर आने वाले थे। मां ने पूड़ी, सब्जी, पकौड़े, और लडडू की तैयारी कर ली थी।
वह अपनी ही दुनिया में मस्त था तभी उसके पापा सुदेश ने आवाज लगाई, मयंक बेटा नहा- धोकर तैयार हो जाओ। पहले मंदिर फिर बाजार चलेगे। मयंक ने शीघ्र ही नहा-धोकर हर वर्ष की तरह दादा-दादी के पांव छुए फिर खुशी से उछलते हुए मां-पापा के साथ हो लिया।
खरीदारी हो जाने के बाद वे केक और चॉकलेट की दुकान पर पहुंचे। मयंक की मनपसंद चॉकलेट की तरफ इशारा करते हुए सुदेश ने दुकानदार से उसे पैक करने के लिए कहा पर, नही अंकल, उसे नही पैक करना, सुनकर सुदेश चौंक गया और मयंक से कहा बेटा वह तेरी फेवरेट चॉकलेट है ना पिछली बार भी तुमने अपने दोस्तो को भी वही चॉकलेट दी थी। पर इस बार नही पापा इस बार आप देसी घी वाली तिल की गजक लेकर दीजिए। मेरे सब दोस्तो को पसंद आएगी। आखिरकार सब खरीदारी हो जाने पर घर आ गए।
शाम को धूमधाम से जन्मदिन मना। मयंक ने दोस्तों और परिवार के साथ खूब मस्ती की। रात को सुदेश ने मन में चल रहे सवाल को आखिर बेटे के सामने रख ही दिया कि इस बार उसने चॉकलेट क्यों नहीं ली।
कुछ नही पापा, बस कुछ दिन पहले किताब में पढ़ा था कि एक किलो चॉकलेट के लिए कई हजार लीटर पानी की आवश्यकता होती हैं। आप और मां जब हमारे घर पानी नहीं आता, तो अक्सर बाहर से पानी भरते हैं। सोचा चॉकलेट खाना कम कर दूं तो थोड़ा पानी बचाया जा सकता हैं। मैंने अपने दोस्तों को भी यह बात बताई पापा तो सबने यही कहा, हां यह अच्छा आइडिया है। सुदेश की आखें भर आई और वह सोचने लगा कि आइडिया कैसा है, वह नही जानता पर यह सच है कि बेटा बड़ा हो रहा है और समझदार भी।
एहसास - Hindi Kahaniya
कितनी बार समझाया तुमको संध्या! हर हफ्ते मत चली आया करो अपनी मां से मिलने? अभी नया-नया ब्याह हुआ है, तुम्हारे ससुराल वाले क्या सोचेंगे?
अरे बाबा, आप भी कैसी बातें कर रहे है? कोई कुछ नहीं सोचता। कुछ सोचता भी हो, तो अब तक मुझसे कुछ कहा नहीं है।
'हां संध्या, बाबा सही तो कह रहे है, और वैसे भी दीदी किसी को पहचानती नहीं हैं अपनी बीमारी के कारण! संध्या, वह मुझे, तुम्हारे चाचा, तुम्हारे भैया, तुम्हारी दोनों भाभियों को और बाबा को भी नही पहचानती! तो तुम परेशान होने क्यो चली आती हो? ऐसा अच्छा नहीं लगता संध्या। चार महीने ही तो हुए है तुम्हारी शादी को.....।
चाची जी, आप प्लीज मेरी चिंता न करें! जब से मां को अल्जाइमर हुआ है, आप सभी जानते है, मां को मैंने एक भी दिन अकेले नहीं छोड़ा है! इतनी जल्दी मेरे लिए यह सब एडजस्ट करना मुश्किल है! मेरी इस बात को विकास और उनके घर वाले भी समझते हैं और मुझे पूरा सपोर्ट करते हैं।उन्हे कोई ऐतराज नहीं! वैसे भी मैं 10 मिनट में मिलकर चली जाती हूं! बस उन्हें देख भर लेती हूं, मेरे दिल को एक अजीब-सा सुकून मिल जाता है। यह बात अलग है, कभी कभी मां मुझे अपने कमरे में आने से साफ मना कर देती हैं। वह मुझे बिल्कुल नहीं पहचानती। कभी कभी गुस्सा कर देती हैं! मेरी आत्मा ही जानती है कि तब कितनी तकलीफ होती हैं मुझे जब मां सामने हो और वह यही नहीं जानती कि मैं उनकी बेटी हूं। कभी कभी मैं खुद उनका हाथ उठाकर अपने सिर पर रख लेती हूं। ज्यादा दुखी होती हूं तो उन्हे पकड़कर रो लेती हूं और वह मुझे एक अनजानी प्रश्न भरी नजरों से देखती रहती है! कभी कभी पूछ भी लेती है, कौन हो तुम? क्या हुआ तुम्हें? क्यो रो रही हो? यहां क्यो आती हो?
पता हैं चाची जी! मां को सामने देखकर, मां की आवाज सुनकर मां को छूकर, मैं उनसे सारे लाड लड़ा लेती हूं। बस, भगवान का यही शुकिया करती हूं कि मेरी मां आखों के सामने हैं। इसे ऐसे ही बनाए रखना। मुझे कुछ नहीं चाहिए।
' संध्या! तुम जबरन चली आती हो! वह तुमको तो पूरी तरह से भूल ही गई है! वह तुम्हारे बाबा, भाई, भाभी को तो भी कभी कभी पहचान जाती हैं।
हां चाची जी, आप बिल्कुल सही कह रही है पर आप ही बताइए मां अबोध बच्चों की कभी अनदेखी नहीं करती, तब बच्चे अब बड़े होकर अपनी अबोध मां की अनदेखी कैसे करें?
किचन में काम कर भाभी से संध्या ने कहा, अच्छा मै चलती हूं भाभी। संध्या दरवाजे की ओर बढ़ ही रही थी, तभी उसके कदम अचानक रुके, उसने चाची को देखा और कहा, चाची जी ,मां भूल गई है कि वह मेरी मां है, पर मुझे यह अच्छे से याद है कि उन्हीं की बेटी हूं।
अपने इस जवाब के साथ संध्या कई सवाल साथ ले गई।
नया कल्चर - Hindi Story
सुनो ! आज बाबूजी आ रहे हैं। मैं उनको लेने जा रहा हूं,उनके लिए खाना बना लेना गाड़ी की चाबी लेते हुए चंदर बोला। बाबूजी के आने खबर सुनते ही रमा आग बबूला हो गई। वह नहीं चाहती थी कि 'हम दो, हमारे दो' वाले परिवार में आकर चंदर के बाबूजी तकलीफ बढ़ाए।
मैं कहती हूं उनको गांव से यहां बुलाने की जरूरत ही क्या है? वे यहां के कल्चर को नहीं जानते है। लेकिन चंदर मुस्कुराते हुए घर से निकल गया। दो घंटे बाद दरवाजे की घंटी बजी। रमा समझ गई थी कि कौन आया होगा। वह दरवाजा खोलकर बिना देखे ही गुस्से में किचन में चली गई। सिंक में बर्तन जोर-जोर से पटकते हुए बड़बड़ाने लगी। 'क्यो ले आए इन्हें? सुबह जल्दी पांच बजे इनके लिए चाय कौन बनाएगा? नो बजे ही इनको खाना चाहिए, टॉयलेट जाते है तो पानी भी नहीं डालते, इनके खर्राटों से रात को मुझे नींद भी नहीं आती है, ये गांव में ही ठीक थे।
पिलाने के लिए ट्रे में पानी के गिलास लेकर वह जैसे ही बरामदे में आई तो सामने सोफे पर अपने बाबूजी को देख अवाक रह गई। बाबूजी आप! मैं तो समझ रही थी कि चंदर के बाबूजी...। तभी उन्होंने रमा की बात बीच में ही कटते हुए कहा, 'बेटी! शहर में डॉक्टर को दिखाने आया था तो दामाद जी को फोन कर दिया था, सोचा था दो चार दिन तुम्हारे पास रहूंगा पर..। दामाद जी, तीन बजे मेरी बस है, मुझे बस स्टैंड तक छोड़ दीजिए, चला जाऊंगा। इधर रमा की स्थिति 'काटे तो खून नहीं' वाली हो चुकी थी और उधर पुराने संस्कार नए कल्चर वाले घर में बुजुर्गो की उपेक्षा के निशान छोड़ते हुए गांव की और बढ़ चुके थे।
मदद हो तो ऐसी - Hindi Kahani
एक समय ऐसा था,जब कौशल के राजा का नाम दिग दिनगत में फैल रहा था। उन्हें दीनो का रक्षक और निराधार का आधार माना जाता था। काशीपति ने उनकी कीर्ति से जल भुन कर उन पर आक्रमण कर दिया। कौशल नरेश हार कर वन में भाग गए पर कौशल में किसी ने काशीराज का स्वागत नही किया। काशीराज ने देखा, तो उन्हे लगा कि प्रजा कौशल का सहयोग कर कहीं पुन: विद्रोह न कर बैठे। इसलिए शत्रु को निस्शेष करने के लिए घोषण कर दी, जो कौशलपति को ढूंढ लाएगा उसे सौ स्वर्ण मुद्राएं दी जाएंगी। जिसने भी घोषणा सुनी, उसने आंख कान बंद कर दांतो से जीभ दबाकर तौबा की।
उधर कौशल नरेश वन-वन में मारे-मारे फिर रहे थे। एक दिन एक पथिक उनके सामने आया और पूछने लगा,
वनवासी ! इस वन का कहा जाकर अंत होता है और कौशलपुर का मार्ग किधर से है?
राजा ने पूछा, तुम वहां किसलिए जाना चाह रहे हो?
मैं एक व्यापारी हूं। मेरी नौका डूब गई है, अब कहा द्वार- द्वार भीख मांगता फिरू सुना था कि कौशल का राजा बड़ा उदार है, अतएव उसी के दरवाजे जा रहा हूं।
थोड़ी देर कुछ सोच विचार कर राजा ने कहा, चलो, मै तुम्हें वहां तक पहुंचा देता हूं, तुम बड़ी दूर से हैरान होकर आए हो।
कुछ दोनो बाद काशीराज की राजसभा में जटाधारी व्यक्ति आया। काशीराज ने उससे पूछा, कहिए, किसलिए आना हुआ?
मैं कौशलराज हूं। तुमने मुझे पकड़ लाने वाले को सौ स्वर्ण मुद्राएं देने की घोषणा कराई है। बस, मेरे इस साथी को वह धन दे दो। इसने मुझे पकड़ कर तुम्हारे पास उपस्थित किया है।
सारी सभा सन्न रह गई। प्रहरी की आखों में भी आसू आ गए। काशिपति सारी बातों जान-सुनकर स्तब्ध रह गए। (छनभर) शांत रह कर वह बोल उठे, महराज। आज युद्ध स्थल में इस दुरंत आशा को ही जीतूंगा। आपका राज्य भी लौटा देता हूं, साथ ही अपना हृदय भी प्रदान करता हूं।
यह कह कर काशीराज ने कौशलपति का हाथ पकड़ कर उनको सिंहासन पर बैठाया और मस्तक पर मुकुट पहना दिया, सारी सभा धन्य-धन्य कह उठी। व्यापारी को मुख मांगी मुद्राए प्राप्त हो गई।